Tuesday 5 January, 2010

"आल इज वेल" इफ "एंड इस वेल"!!!!!!



हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म "थ्री इडियट्स" निश्चय ही एक ऐतिहासिक फिल्म साबित होने वाली है इसके ऐतिहासिक होने का प्रमाण इसकी अब तक की रिकॉर्ड कमाई है तो वहीँ कारण है सामाजिक सरोकार!! वर्त्तमान समय में लोग अपने बच्चों को इंजिनियरडॉक्टर, वैज्ञानिक आदि बनाने कि होड़ में लगे हैं. 
इस प्रकार हर आदमी का लक्ष्य व्यक्तिगत प्रतिष्ठा में वृद्धि करना है और समाज के विकास से किसी को कोई मतलब नहीं है. फिल्म में समाज के इसी पक्ष को छूने का प्रयास किया गया है. वस्तुतः देखा जाये तो इस प्रकार के प्रयास तो विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी  की फिल्म निर्माण शैली की एक प्रमुख विशेषता  बन गए है. इस द्वय ने मानो विषयों को इस रूप में प्रस्तुत करने की तरकीब खोज ली है जिसने मॉस (आम जन) से लेकर क्लास तक सभी को हंसाया-रुलाया है. यह बात इनकी फिल्मों 'मुन्ना भाई ऍमबीबीएसतथा 'लगे रहो मुन्ना भाई'  में पहले ही सिद्ध हो चुकी है.
"थ्री इडियट्स"  रेंचोराजू तथा फरहान के माध्यम से यह सीख देती है कि सिद्धांत बनाने के चक्कर में हम अपनी व्यावहारिकता को भूलते जा रहे हैं  और इन सिद्धांतों का बोझ सर्वाधिक पड़ा है हमारी युवा पीढ़ी पर! कुछ इस बोझ को झेल लेते हैं तो कुछ 'जॉयकी तरह इससे बचने का आसान रास्ता (आत्महत्या) चुन लेते हैं.
फिल्म में इन सभी बातों  को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से फिल्माया गया है लेकिन फिल्म के पहलुओं को लेकर काफी परिचर्चा जारी है. इसमें एक बात फिल्म के तकनीकी पहलुओं से सम्बंधित है. इस दृष्टि से देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज लेखकों ने अपने आप को हाईलाइट करने का एक तरीका इजाद कर लिया है और वह हैसीधीसंतुलित  बातों का छिद्रान्वेषण. हाल ही में अख़बार में छपे एक लेख में एक लेखक महोदय ने "थ्री इडियट्स" के कमज़ोर पहलुओं पर प्रकाश डाला. अपने को आमिर खान का पुराना फैन बताते हुए लेखक ने बताया कि उन्हें फिल्म  के दृश्यों में  चोपड़ा-हिरानी द्वय द्वारा पूर्व में निर्मित फिल्मों की पुनरावृत्ति लगी और साथ ही उन्हें फिल्म थोड़ी लम्बी लगी. उनका यह भी मानना है  कि फिल्म का नारा "आल इज वेल" फिल्म समाप्त होने के बाद कुछ कसक छोड़ जाता है और लगा कि यह "आल इस वेल बट इट कुड हैव बीन मच बेटर" हो सकता था. यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि जनाब अपने लक्ष्य में कामयाब रहे क्योंकि उन्होंने मुझ जैसे अख़बारों से एलर्जी ग्रस्त व्यक्ति को भी अपने लेख को पढ़ने पर मजबूर  कर दिया और मुझे यह पता भी चल गया कि इस नाम का कोई व्यक्ति सम्पादकीय पृष्ठ पर लिखता है. बहरहाल उनका लेख पढ़ कर मैंने अपने आपको कितना भी सँभालने कि कोशिश की पर मैं अपने आप में फ्री रेडिकल्स और नेगेटिव ऊर्जा की प्रक्रिया को नियंत्रित न कर सका. मुझे एक प्रबुद्ध व्यक्ति की सोच पर क्षोभ हुआ क्योंकि उन्होंने एक साफ़-सुथरी फिल्म के लक्ष्य पर नहीं वरन उसके तकनीकी पहलुओं पर कटाक्ष किये. लेकिन मेरे हिसाब से यह तो चाँद में सिर्फ दाग देखने जैसे  छिद्रान्वेषण की पराकाष्ठा है. अब महोदय को कौन समझाए की जब किसी के लेखोंकला आदि में पुनरावृत्ति लगती है तो पूर्व की नक़ल  न होकर उस व्यक्ति विशेष की शैली होती है और वही उस कलाकार की पहचान बनती है. और जहाँ तक समस्या फिल्म की लम्बाई को लेकर है तो मैं एक सलाह देना चाहूँगा की ऐसे लोगों को तुरंत हाल से बाहर आ जाना चाहिए, किसी डॉक्टर ने तो कहा नहीं है कि पूरी फिल्म देखकर ही उठना.
वास्तव में देखा जाये तो ऐसा करने के पीछे ऐसे लेखकों की धारणा उजागर होती है जिनका यह मानना है कि लीक से हटकर या आम आदमी कि सोच से इतर लिखकर ही उन्हें प्रतिष्ठा तथा क्लास मिल सकता है. लेकिन महोदय को यह बता दूं कि आज का मॉस (पाठक) इडियट नहीं है और उसने अगर मुंह  फेर लिया तो अपनी साख बचाने के लाले पड़ सकते हैं.
खैर छोड़िये इन बातों को एक दूसरे पहलू पर बात करते हैं. दो दिन पहले ही टी.वी. पर खबरिया चैनल पर फिल्म कि स्क्रिप्ट को लेकर नोक-झोंक देखने को मिली. जिसमें एक ओर फिल्म कि पूरी टीम थी तो दूसरी ओर थे फिल्म की कथा के असली सूत्रधार चेतन भगत. यह तथ्य भारतीय सिनेमा जगत के उस कड़वे सच की ओर इशारा करता है जिसमे लेखकों के साथ  डिस्पोज़बल (यूज़ एंड थ्रो) व्यवहार किया जाता है. शायद मामला ऐसे प्रतिष्ठित लेखक का था तो यह बात सबके सामने आ गयी वरना सामान्य लेखकों को तो शायद कुछ पैसे देकर उनका मुंह बंद कर दिया जाता.
चोपड़ा-हिरानी द्वय ने कहा की उन्होंने फिल्म की स्क्रिप्ट पर काफी काम किया हाँ फिल्म बनाने की प्रेरणा उन्हें भगत की पुस्तक से अवश्य मिली. इन बावलों को शायद यह पता नहीं है फिल्म के शुरू होने के साथ ही दर्शक  ;  रेंचोराजू तथा फरहान में रायन,अलोक और हरि को सिर्फ देख ही नहीं  रहे थे बल्कि उनकी खुसफुसाहट इस बात का उद्घोष कर रही थी कि उन्होंने चेतन भगत की "फाइव प्वाइंट समवन" पढ़ रखी है. इतना ही नहीं फिल्म के दृश्योंगतिविधियों में उपन्यास से समानता तो थी ही साथ ही 'वायरसके रूप में मूल उपन्यास के 'प्रोफेसर चेरियनके बीच भी साम्यता स्थापित हो जाती है. यह सत्य है की फिल्म की स्क्रिप्ट पर काफी काम किया गया है तथा इसे रोचक बनाने के लिए मूल कथा के साथ कल्पना का समावेश किया गया है  लेकिन स्क्रिप्ट और उपन्यास कथा में अंतर होते हुए भी फिल्म की पटकथा का श्रेय चेतन भगत को ही जाना चाहिए था. चोपड़ा-हिरानी द्वारा इस तथ्य से इन्कार एक ऐसे प्रतिष्ठित लेखक का घोर अपमान है जिसका उपन्यास बेस्ट सेलर रह चुका हो. निश्चय ही भगत को रुपये की चाह न होगी परन्तु अपनी प्रतिष्ठा का उत्कर्ष तो हर व्यक्ति चाहता है. ऐसे मेंजब किसी को उसके हक़ से निरुद्ध किया जा रहा होतब अपनी बात स्पष्ट रूप से रखना न सिर्फ स्वाभाविक है वरन आदर योग्य भी है क्योंकि इससे हजारों लोगों को गलत के खिलाफ आवाज़ उठाने का बल मिलेगा.
यदि फिल्म निर्माताओं के इस व्यवहार पर विचार किया जाये तो यह लगता है वह अत्यंत नियोजित था. लगा जैसे वे फिल्म की सफलता के प्रति आशान्वित तो थे ही साथ ही फिल्म की सफलता का सारा श्रेय स्वयं बटोर लेना चाहते हों. यह बात निश्चय ही इनकी व्यवसायिक वृत्ति में नैतिक मूल्यों  के ह्रास की ओर संकेत है. इनकी व्यावसायिकता अधिक से अधिक लाभ कमाने का उद्देश्य लेकर चल रही है तथा यह लाभ भौतिक(धन) और अभौतिक(यश) दोनों स्तर का है.
परन्तु जहाँ तक इस प्रकार के व्यव्हार का प्रश्न है वह निश्चय ही निंदनीय है. एक साक्षात्कार में चेतन भगत ने  बताया कि फिल्म की कास्टिंग में भगत का नाम न देख उनकी माँ रो पड़ीं. फिल्म टीम को इस बात को समझना होगा और प्रोफेशनल एथिक्स  के तहत भगत को अपेक्षित  सम्मान देना होगा वरना उनका करोड़ों का क्षणिक लाभ उनके भविष्य को प्रभावित कर सकता है क्योंकि मॉस(आम जन)की एक विशेषता यह है कि वह आज भी अत्यंत भावुक है और एक माँ  के दिल को ठेस पहुंचे वह यह बर्दाश्त नहीं कर सकता. फिल्म ने अपेक्षा से अधिक कमाई कर ली है, अब मौका है नाम कमाने और अच्छाई का पर्याय बनने का. अतः फिल्म टीम को इस दिशा में एक कदम बढ़ाना होगा उचित व्यवहार करना होगा और तब शायद हम कह सकेंगे कि "आल इज वेल" इफ द "एंड इज वेल"!!!!!!