Thursday, 20 March 2014

सिंघासन खाली करो कि जनता.......


बचपन से ही सुनता आ रहा हूँ "honesty is the best policy"..और हम सभी ने इसे ईश्वरीय आदेश मानकर आत्मसात भी किया है लेकिन हैरानी तब होती है जब हम देखते हैं कि हमारे नेताओं या कहें कि policy makers को यह बात क्यों नहीं समझ आयी। आज़ादी के बाद इनके सद-आचरण में परिवर्तन ने संपूर्ण व्यवस्था को जैसे पलट ही दिया। इन परिवर्तनों ने एक तरफ इन्हें सदाचार से दूर किया तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार ने इन्हें पूरी तरह,कब अपनी गिरफ्त में ले लिया पता ही न चला। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि इनके कृत्यों से देश की जनसँख्या का अधिकाँश भाग प्रभावित हुआ। या कहें तो देश का "आम आदमी" अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पाने में असमर्थ रहा।
यह भी सर्वविदित तथ्य है कि समय का चक्र जब घूमता है तो अच्छाई और बुराई का भान करा ही देता है। यही कारण है कि आज देश की जनता जान गयी है कि समाज में सर्वत्र भ्रष्टाचार व्याप्त है। कहा जाता है कि भ्रष्टाचार एक सापेक्षिक अवधारणा है लेकिन इस सापेक्षिता की कसौटी सिर्फ ईमानदारी है और सिर्फ ईमानदारी ही होनी चाहिए। वर्तमान समय में तो जैसे इस कसौटी का स्वरुप ही परिवर्तित कर दिया गया है। प्रायः सर्वत्र बेईमान लोगों को गाल बजाते हुए देखा गया है कि फलाने ने तो हज़ारों करोड़ का घोटाला किया है और हमने कुछ करोड़ का किया तो सब हमारे पीछे ही पड़ गए। और यह तथ्य संस्थागत रूप धारण कर चुका है।।।। लेकिन अब राजनीति की एक नयी फितरत सामने आई है। वह है अपनी ईमानदारी सिद्ध करने के लिए घूम-घूम कर दूसरों की बुराई करना या उनके अच्छे कार्यों का भी छिद्रान्वेषण करना । यथा जिन राज्यों में विकास की बात पुष्ट है या विकास की गति तीव्र है वहाँ के लिए हतोत्साहक बातें करना।।।। या यह कहना कि उतना विकास नहीं हुआ जितना अपेक्षित था।... ऐसी बातें सुनकर हँसी  भी आती है और मन भी ख़राब हो जाता है, कि क्या सोचकर जनता ऐसे लोगों को सर्वोच्च सत्ता पर बिठा देती है।
               क्या करे?!!!!? जनता भी ऐसे दुष्प्रचारों के भंवर में फंस जाती है जो कि कम/अधिक भ्रष्टाचार, विकास-अविकास, क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्म आदि पर आधारित होते हैं। लेकिन समय की करवट के बाद यदि वर्तमान सामजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर नज़र डालें तो यह सब अब बीते कल की बातें लगने लगी हैं। आज न सिर्फ देश की 73% साक्षर जनसँख्या ऐसे मुद्दों के प्रति जागरुक हो गयी है बल्कि शेष 27% को "जनता के शासन" के मायने का ज्ञान हो गया है। आज देश के अधिकतर लोगों को अपने वोट देने के अधिकार की शक्ति का आभास हो गया है। यह ज्ञान किसी के द्वारा थोपा नहीं गया है बल्कि यह उन्होंने सम्पूर्ण राजनीतिक पहलुओं के मूल्यांकन के पश्चात् स्वयं संजोया है।यही कारण है कि जनता ऐसे व्यक्ति को अपना मत देना चाहती है जो ईमानदार हो, कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किस पार्टी का है और जिसकी ईमानदारी को उसकी बातों से नहीं बल्कि उसके कार्यों से जनता ने स्वयं महसूस किया हो। आज लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में ईमानदार और भ्रष्ट दोनों तरह के लोग हैं लेकिन पार्टियों को शायद मालूम नहीं कि जनता के वोट का आधार पार्टी का चुनाव चिह्न नहीं बल्कि प्रत्याशी की समाज में व्याप्त छवि होगी। जनता में आक्रोश भरा हुआ है वह इस भ्रष्ट स्तम्भ को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहती है और एक ऐसे स्तम्भ का रोपण करना चाहती है जिस पर लगा तिरंगा अपने रंग और चक्र जैसे अवयवों का साक्षी बनकर यूँ लहराए कि देश के प्रत्येक नागरिक का सिर गर्व से ऊंचा हो जाये।
आने वाले समय में ऐसा होकर रहेगा जब देश में सुशासन स्थापित होगा और जनता की आकांक्षायें पूरी होंगी। क्योंकि आज जनता ने देश के राजनीतिज्ञों को कुछ इस तरह चेताया है:

"सदियों से बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
दो राह समय के रथ का घर-घर नाद सुनों,
सिंघासन खाली करो कि जनता आती है।"


Sunday, 2 February 2014

आखिर दिल ही तो है!!!!

मैंने आज एक मित्र द्वारा लिखीं कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं ।  जब मैं अकेला बैठा था तभी अचानक मन न जाने भूत के किस पड़ाव पर जाकर ठहरने लगा। पल भर के भूत से वर्तमान तक के सफ़र ने जैसे ज़माने के बदलते रंग-रूप से रुबरु करा दिया। वैसे बदलाव तो संसार का नियम है यानि संसरण अर्थात निरंतर आगे बढ़ने की प्रक्रिया।
ज़िन्दगी में लोग आए लोग साथ चले और लोग बिछड़ गए.....हमारी अवस्था बदलती गयी और एक दिन लगा जैसे दुनिया ही बदल गयी।
ऐसा ख़ास तौर पर तब हुआ जब पुरानी यादों के किसी झोंके ने हमारे भोगे हुए इतिहास के पन्ने को हमारे सामने लाकर रख दिया।और हम "तब और अब" की तुलना करने लगे।।।।ज़िन्दगी की गणित शुरु हुई...लगा जीवन की इस दौड़ में भले ही हम सबसे आगे निकल गए हों, हमने खोया ज्यादा और पाया कम है।
फिर भी यदि हम बदलाव की ओर गौर करें तो पाते हैं कि यह स्वाभाविक है।। पहले हम पैदल चले फिर बैलगाड़ी,साइकिल फिर मोटर गाड़ी ने तो ज़िन्दगी को रफ़्तार ही दे दी और आज तो हमारे पाँव ही ज़मीन पर न रहे हम हवा में उड़ने लगे हैं।
निश्चय ही हमने अपना समय बचाया है लेकिन गौर करें तो पहले की तुलना में आज हमारे पास अपनों के लिए समय कम है। इसमें दोष हमारा नहीं लगता दोष तो लगता है सभ्यता की रफ़्तार का जिसने हमें तार से बेतार कर कब ब्लूटूथ बना दिया पता ही नहीं चला।। हमनें भी सभ्यता की तेज़ी से हिंडोले मारती पतंग की डोर को कस कर थामे रखा।। सभ्यता की पतंग तन कर ऊंची होने लगी तब हमने संस्कृति की चरखी से उसे धीरे-धीरे ढील दी क्योंकि हमें डर था कि कहीं हम हत्थे से ही न उखड़ जाएँ।
इन सब वैचारिक झंझावातों से निकल कर भी यदि हम सोचें तो यह बात समझ में नहीं आती कि भले ही हमने अपने जीवन में कितनी भी ऊँचाइयाँ छू लीं हों,हमें सब कुछ पाने का एहसास हो फिर भी हमारा मन गाँव की मिटटी में ही क्यों ज्यादा रमता है।। क्यों नहीं भूल पाए हम चूल्हे की रोटी का सोंधापन,क्यों आज भी तलाशते हैं माँ के हाथ की दाल का स्वाद।।।।। और न जाने क्या क्या????
चलिए इन सबको छोड़ते हैं वरना मन दुखी होगा।।
चलिए अब कुछ रोचक हो जाये।।हमारे जीवन में एक चीज़ तो ख़ास हुई ही है। हमें मधुबाला अच्छी लगती थी तो आज भी हमारा दिल करीना पर आ जाता है... हो भी क्यों न ? आखिर दिल ही तो है!!!!!

Wednesday, 30 May 2012

दिल की आवाज़!!!!















दुनिया की भीड़ से अलग,
हरियाली बीच बैठा मैं.
मन कुछ सोचता,
पर प्रकृति में खोया मैं.. 
तभी एक चिड़िया चहचहाई,
मन का तानपुरा छिड़ गया !!
मैंने नज़रें उठाईं..
देखा तो एक डाल पर,
चिड़िया कुछ ठान कर,
घोंसला बनाने में लगी..
अचानक एक विचार कौंधा.. 
दुनिया के दस्तूर पर,
जो प्रकृति में स्थित,
अपने सहचरों का
ख़याल न रख रही थी.. 
मानव सुखों के लिए पेड़ कटे,
न जाने कितनों के घरौंदे टूटे..
इंसान ने 
अपने घरों को बसाया,
दूसरों के आशियानों को जलाया.. 
जंगल के जंगल कटे,
असंख्य जानवर घटे..
आज यह घोंसला बनेगा,
कल शायद यह पेड़ भी कटेगा.. 
दूसरों के घर उजाड़कर,
ईंट-पत्थरों का नया शहर बसेगा..
इस सोच में डूबे हुए
लगा किसी ने मुझे पुकारा
वह पेड़ था..
वह चिड़िया थी.. 
या मेरे दिल की आवाज़ थी........

Monday, 21 November 2011

मरे का सम्मान!!!!!

                                                                                                                 


सब लगते यहाँ अपने हैं,पर अपनापन कहाँ है?,
गैर ज़िम्मेदार हूँ मैं, या सिर्फ ताने देता जहाँ है.
क्या इतना मूढ़ हूँ मैं कि यह बात न समझ पाऊँ,
जी में आता है कि चुल्लू भर पानी में डूब मर जाऊं.
तानों के तीर तीक्ष्ण हैं भुजंग के भी दंश से,
एक मौत देता दूसरा छोड़ता घाव असाध्य से.
जो सतत टीसते कि अकर्मण्य तू अब तक नहीं मरा.
क्या कर्म था क्या नहीं किया कोई यह बता दे ज़रा.
धिक् जीवन यह हाय! जहाँ समझौते करने पड़ते हैं,
यहाँ सांस लेते रहने को भी बहाने गढ़ने पड़ते हैं.


क्या कभी किसी चिड़िया सा मैं ऊँचा उड़ पाउँगा?,
मन के पंख फैलाकर क्या हवा में लहराऊंगा?
आँखें भर आती हैं पर आँसू नहीं छलकते हैं,
जो मगज के पृष्ठ भाग में ज्वाला बन धधकते हैं.
यह पीड़ा कष्टदायी है यह भावों का ही घाव है,
मंथन होता है वैसा कि जब धारा में फंसती नाव है.
कैसा कम्पन है यह जो स्नायु-तंत्र को है निचोड़ता,
बेबस हुआ मन मेरा अब तक जो न था कुछ सोचता.


तमाशाइयों की इस भीड़ में अकेला हूँ लाचार हूँ.
उनकी नज़र में हमेशा सा आज भी बेकार हूँ.
शायद इन सब के लिए मैं ही ज़िम्मेदार हूँ,
सतत द्वंद्वों बीच गढ़ा एक विचित्र सा आकार हूँ.
कहने को चौरासी हजार योनि पार कर यहाँ आया हूँ,
पर इस सफ़र में दोस्तों सब खो दिया कुछ न पाया हूँ.
मनुष्य योनि श्रेष्ठ है पर यह कैसा मानव स्वभाव है,
कभी तो यह लगता है इसमें भावना का ही अभाव है.
भावना भी है तो उसकी प्रकृति बड़ी विचित्र है,
हर पल बदल जाता है वही मानव का चरित्र है.

यदि रुग्ण हुई काया मेरी तो मेरा क्या कसूर है,
या कोई दूसरा भी यह न समझने को मजबूर है.
हे ईश! वध करो मेरा,मुझे कष्ट है जब तक यह जान है,
मैं समझ गया इस समाज में मरे हुए का ही सम्मान है...



Tuesday, 19 October 2010

दुर्गा(नारी के शक्ति रूप की)पूजा : छद्म या वास्तविकता !!!!!!!!!

प्रत्येक वर्ष नवरात्री के समय माँ-दुर्गा के विभिन्न रूपों की उपासना की जाती है. दुर्गा की उपासना नारी के शक्ति रूप में की जाती है. नारी की शक्ति से तात्पर्य, नारी की जन्म देने की क्षमता से है जो उसे पुरुष से पृथक करती है. अपनी जनन क्षमता के कारण ही संहार करने की शक्ति की वह प्रथम अधिकारिणी है. क्योंकि न्याय की दृष्टि से किसी वस्तु को नष्ट करने का पहला अधिकार उस व्यक्ति का होता है जिसने उस वस्तु का सृजन किया है. जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्य का प्रश्न है दुर्गापूजा का सन्दर्भ, माँ दुर्गा द्वारा महिषासुर नामक राक्षस के वध से जुड़ा हुआ है और शायद तभी से परंपरा रूप में हम दुर्गापूजा का अनुकरण करते रहे हैं.
स्त्री में देवत्व का आरोपण वस्तुतः उसकी साधारण मानवी की प्रतिष्ठा का निषेध करता है. क्योंकि यह तयशुदा बात है कि देवी के समकक्ष स्थापित होने के पश्चात उसके अन्दर साधारण मानव को उपलब्ध सहज सुलभ आवश्यकताएं, इच्छाएं, वासनाएं नहीं हो सकतीं. साथ ही देवी रूप में उसका धातु-पत्थर से मूर्तीकरण उसे मानवीय संवेदनाओं से परे कर देना है.
इस प्रकार एक साधारण स्त्री को मानव सुलभ अधिकारों से वंचित कर देवी के रूप में चित्रित करना समाज का सोचा समझा षड़यंत्र प्रतीत होता है. स्त्री को देवी बनाकर और स्वयं के लिए समस्त सांसारिक भोगों को प्राप्य घोषित कर पुरुष ने अपने एकाधिकार को सुरक्षित करने का मार्ग बनाया है. वरना देवी के रूप में प्रतिष्ठित करने के बाद भी समाज में स्त्री को दोयम दर्जा नहीं प्रदान किया गया होता.
    स्त्री की पूजा सिर्फ उतनी ही होती है जितनी प्राकृतिक रूप में संचालित किये जाने वाले कर्मकांडों में प्रदर्शित होती है. यदि ऐसा होता तो वर्ष के १८ दिन (* दिन), देवी के समकक्ष स्थापित होकर बाकी के ३४७ दिन उसे शोषण, प्रताड़ना तथा वंचना का दंश  झेलना पड़ता. जीवन के सुन्दर समतल में अमृत स्रोत सी प्रवाहित होने वाली स्त्री को सहज मानवीय गरिमा उपलब्ध कराना तो दूर उसे मानवीय स्पंदनों से भी वंचित कर दिया जाता है.
आज की स्त्री स्वंत्रता और मुक्ति की कामिनी है अतएव उसे स्त्रीत्व और मातृत्व की परंपरागत बंदिशें भी स्वीकार्य नहीं हैं. तो वह अपनी सत्ता को धातु की मूर्तियों में कैसे विसर्जित कर सकती है. आज नारी रूढ़िगत मान्यताओं और जंजीरों से निकलकर पुरुषों के सम स्तर पर खड़ी हुई है. उसने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चलना सीख लिया है. यही नहीं नारी की ऊपर उठने की इस अन्तर्निहित शक्ति को, महिला सशक्तिकरण के रूप में चल रहे राजनैतिक प्रयासों का भी बल मिला है. परन्तु स्त्री को शक्ति के रूप में (देवी रूप में) चिह्नित करते ही वर्तमान समय में स्त्री/नारी सशक्तिकरण की चूलें भी हिल जाती हैं.
दुर्गा काली का खड्गधारी शक्ति रूप स्त्री को शक्ति को प्रातीतिक रूप में चिह्नित भले ही करता हो परन्तु मृदा/धातु की मूर्तियों में जिस स्त्री शक्ति का आरोपण पुरुष-सत्ता शासित समाज करता है, उसी शक्ति की मानविक रूप में जो प्रताड़ना तथा उत्पीड़न उसी पुरुष द्वारा होता है वही कठोर यथार्थ है. इस कठोर यथार्थ में मूर्तियों में तो स्त्री देवी है परन्तु मानवीय देह के प्रश्न पर उसके प्रति व्यवहार, मानवीय गरिमा के भी प्रतिकूल है. यानि देवत्व का आरोपण, कुल मिलाकर स्त्री की वंचना को एक पौराणिक जामा पहनाना है. जो यह तर्क प्रतिपादित करता है कि देवी होने के कारण स्त्री सांसारिक सुखों, भोगों, इच्छाओं, अभिलाषाओं आदि की अधिकारिणी नहीं है, जो कि मानव को सहज सुलभ हैं.
मार्क्स ने कहा था कि स्त्री को देवी कहना, उसका सबसे बड़ा अपमान है. आज भारत में सबसे ज्यादा मार्क्सवादी पश्चिम बंगाल में हैं और वहीँ पर दुर्गा पूजा का पर्व सर्वाधिक हर्षोलास के साथ मनाया जाता है. ऐसे में कथनी और करनी के बीच का बड़ा अंतर इस बात कि ओर संकेत करता है दुर्गापूजा, माँ दुर्गा की महिषासुर मर्दिनी के रूप में उपासना मात्र है कि स्त्री को शक्ति रूप में पूजने अथवा स्थापित करने की (वैचारिक) इच्छा !!!!