Wednesday 24 March, 2010

दीवार में रास्ता! मौलिक अधिकार(हक़) पाने की जद्दोजहद!!!


साहित्यिक पत्रिका अभिव्यक्ति में छपी तेजिंदर शर्मा जी की लघु कथा 'दीवार में रास्ता' पढ़ी http://www.abhivyakti-hindi.org/kahaniyan/vatan_se_door/2010/deevarmerasta/dmr1.htm.
यह एक उपेक्षित दमित परिवार के मौलिक अधिकार(हक़) को पाने की जद्दोजहद को उजागर करने वाली कहानी है. कहानी में तेजिंदर जी की समाज के प्रति सूक्ष्म दृष्टि प्रकट हुई है. एक छोटे से विषय के आसपास उन्होंने भूत और वर्तमान के बीच ऐसे ताने-बाने को बुना है जिसमे पाठक लगातार गुन्थता चला जाता है. एक भारतीय कस्बे (नगर ) आजमगढ़ के एक ऐसे परिवार की स्थिति जिसका कभी वैभवशाली अतीत रहा होगा, यह तथ्य अनायास ही पाठक के सामने रूप धरने लगता है . एक परिवार जो अपनों से उपेक्षित रहा है तथा जो अपने ही घर में परायेपन का एहसास करने वाला जीवन जी रहा है. ऐसा परिवार जिसके लोगों के जीवन का आधार भूत स्तर किसी तरह ही संतुष्ट हो पा रहा है , और ऐसे घर में प्रवेश के मार्ग पर दीवार बना देना कहीं से भी सुरुचि पूर्ण तथा न्यायोचित नहीं लगता. पाठक भी इस दीवार को मोहसिन और सकीना की ही भांति तोड़कर स्वतंत्रता के उच्च स्तर का एहसास करना चाहता है, और इसके लिए अगर वह 'छोटी जान' के ऊंचे ओहदे के सहारे की अपेक्षा करे तो यह अत्यंत स्वाभाविक है. लेकिन छोटी जान के पोलिटिकल रसूख के कारण, एक जटिल और असंभव से दिखने वाले काम के बन जाने की संभावनाएं,    " उगते सूरज को सलाम करने " की समाज की फितरत से चादर हटाती हैं.

कहानी में पात्र, चरित्र, कथोपकथन के अलावा एक विशिष्टता है इसका अंत!. कथान्त के समय पाठक कहानी से इतना जुड़ चुका होता है कि उसकी, कथा से अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं उसका दिल कुछ "मोर" की माँग करने लगता है और यह "मोर" है दीवार में रास्ता बनाने के काम को अंजाम तक ले जाने कि ख्वाहिश.!! पर यही तो तेजिंदर जी की शैली है जिसमें पाठक कथाक्रम से इस प्रकार जुड़ जाता है  कि अंत में उसका मन एक अधूरेपन, एक अजीब से खालीपन के एहसास से भर जाता है और जो बात शेष रह जाती है वह है एक हूक! एक टीस! जो उसकी भावनाओं का परिष्कार करती है.


धन्यवाद!
आपका मनीष..............

Monday 15 March, 2010

"तेजेन्द्र शर्मा : होम-लेस",.... पर मैंने जो महसूस किया


'पाखी' www.pakhi.in के मार्च २०१० अंक में तेजिंदर शर्मा जी की कहानी "होम-लेस" पढ़ी.
कहानी पढ़कर मैंने जो महसूस किया वह अपने सभी मित्रों के साथ बंटाना चाहता हूँ. 


सामान्य से संवाद और वातावरण को आधार बनाकर कथा की इमारत खड़ी करने की तेजिंदर जी की कला अद्भुद है.
कहानी का आरम्भ बाजी और सिकंदर साहब के बीच संवाद से होता है. कथारम्भ में ही बाजी की बातों से भारत-पाकिस्तान का वह चरित्र उजागर होता है जिससे जुड़े मूल्यों को,ये दोनों देश एक दूसरे से अलग होने के बाद भी नहीं छोड़ पाए हैं.यथा अनुशासनहीनता,दुराचार आदि....
झंडे के चाँद तारों से पाकिस्तानी राष्ट्रीयता का चित्र खींचा गया है तो वही यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कोई ऐसी भी जगह है जहाँ सरकार गरीबों को खाना मुहैय्या कराती है....सरकारी भंडारा टाइप्स !!!!!!!!!!!!! हमारे यहाँ तो अगर चुनाव न हो तो सरकार गरीबों को पानी भी न पूछे.और इसके लिए गरीबों को उन महान विभूतियों के प्रति आभार प्रकट करना चाहिए जिन्होंने इस लोकतंत्र में कम से कम उनके वोटों को समान मान्यता दी है. भले ही अन्य क्षेत्रों में वे समानता से कोसों दूर रह गए हो लेकिन इस राजनितिक समानता ने उन्हें वोट के रूप में एक ऐसा अस्त्र प्रदान किया है जो चुनावों के समय उनकी पूछ बढ़ा देता है.चुनाव के बाद तो सरकार अपने वादे भूल जाती है और उसका मुख्य एजंडा पार्टी को मजबूत करना होता है .इसके लिए अधिक से अधिक धन अर्जित करना मुख्य लक्ष्य बन जाता है और समष्टि का सरोकार अगले चुनावों तक के लिए ठन्डे बस्ते में चला जाता है.आजकल तो हमारे यहाँ एक नया ट्रेंड चल पड़ा है वह है शाहजहाँ बनने की ललक/होड़ ! जो भी सत्तासीन हो रहा है वह अपने तथाकथित गाड फादरों के नामों की इमारतें,पार्क,चौराहे बनाने में लगे हैं हाँ इससे एक बात का सुकून तो है ही इससे कुछ गरीब मजदूरों को रोजगार तो मिल ही जाता है...
कहानी में सिकंदर साहब के कथन कि 'मुसलमान की भूख मिटने से ही अल्लाह खुश होंगे'.एक ऐसी सोच को उजागर करती है जिसमे एक तरफ अपने समुदाय के प्रति कट्टर समर्थन है तो वहीँ दूसरी ओर मानवता के प्रति पाखण्ड!
सिकंदर साहब से विपरीत बाजी की सोच अत्यंत संतुलित है. सर्व धर्म समभाव पर आधारित मानवतावादी दृष्टिकोण को धारण किये हुए है.यही कारण है की कहानी को आगे बढ़ने तथा उसकी रोचकता को बनाये रखने के लिए बाजी को केंद्रीय पात्र की स्थिति दी गयी है.
इसके अलावा कथा में भूख को अत्यंत स्वाभविक रूप में परिभाषित किया गयाहै.जो भूखे गरीबों के लिए भले ही कोई मायने न रखती हो लेकिन जिनके पेट भरें हैं उन्हें अवश्य सोचने पर मजबूर कर देती  है. वैसे आपने गरीबों की एक विशेष गंध, उनका माहौल तथा उनकी बेघर स्थिति के माध्यम से गरीबी की संस्कृति का जो रूप खींचा है वह उसी रूप में लगभग दुनिया के सभी समाजों में देखी जा सकती है.कहानी एक अन्य पहलू पर भी प्रकाश डालती है और वह यह था कि "कोई भी यहूदी बेघर या भिखारी नहीं देखा".इस तरह से विचार करें तो हमारे देश में भी शायद ही कभी कोई सरदार/सिख भिखारी देखा गया हो.दरअसल इन धर्मों या पंथों से जुड़े लोगों कि संपन्न स्थिति के आधार में उनके धर्म ग्रन्थ में लिखीं वह बातें हैं जो उन्हें निरंतर कर्म करने कि प्रेरणा देती हैं.
७ जुलाई  की घटना  के उल्लेख  मात्र  से उस घटना के रोंगटे खड़े करने वाले पलों का एहसास जीवित हो उठता है तो वहीँ आतकवादियों प्रति दहशत और इस्लामिक कट्टरता के प्रति आक्रोश प्रकट होता है. 
तनाव के पलों में दिल की धड़कन का बढ़ जाना,पेट में मरोड़ उठना आदि स्वाभाविक शारीरिक प्रक्रियाओं का उल्लेख कथा को और रोचक बनाता है. तो वहीँ फिलिपिनो मेड लमलम का उल्लेख निश्चय ही मेरे जैसे पाठकों के लिए क्षण भर के लिए ही सही कथा में थोड़ी सरसता ला देता है.एक स्थान 'घंटी बजती है और बजती ही चली जाती है'  पर सामान्य बात को विशेष ढंग से कहने की कला प्रकट हुई है.इसके अलावा एक जगह जेनी  का प्रश्नवाचक अंदाज़ तुरंत ही भारतीय रेलवे स्टेशन पर उद्घोशिकाओं के अंदाज़ का एहसास कराने जैसा लगता है जिसमे हमेशा एक अधूरेपन का एहसास होता है कि जैसे वह कुछ और कहना चाह रही हो और किसी ने उसका गला दबा कर उसकी आवाज़ को अचानक बंद कर दिया हो.
वर्कर्स को छोटे  भाई  का पद  देना जहाँ बाजी के व्यक्तित्व के गुरुत्व का एहसास करता है तो वहीँ उनके चिंतन में गरीबी की बदबू और विकास की खुशबू  के बीच पसरी खाई के प्रति चिंता उनकी संवेदनशीलता का बखान करती है.
होमेलेस डे केयर सेंटर में बाजी और फ़र्नान्डिस के बीच हुए वार्तालाप से मार्क्स एंड स्पेंसर द्वारा एक्सपायर्ड खाने को गरीबों में बंटाना बेकार चीजों से पुण्य कमाने जैसा लगता है.तो वही इस खाने को खाकर स्वस्थ रहने की स्थिति यह बताती है कि गरीबों के पास और कुछ भले न मजबूत हो उनकी पाचन क्षमता ज़रूर मजबूत होती है.इसके अलावा इस सेंटर में आने वाले लोगों से उनके यहाँ आने के कारणों का पता चलता है.जो आधुनिक युग की प्रवृत्तियों यथा अकेलेपन ,स्वार्थ और उससे उपजे अवसाद का परिणाम है .
कथा में समलैंगिकता के भावनात्मक पक्ष को स्पर्श कर लेस्बियन और गे जैसे सम्बोधों को अलग ढंग से समझने का ज़रिया प्रदान किया है.एंजेला और स्टेला के शब्दों में ऐसे संबंधों का अर्थ यह है कि आपके पास एक ऐसा साथी है जिसकी गोद में सिर रखकर दुखों को भूल जाने  का सुख मिल जाता है. वह भी जब आपके अपनों ने आपको अपनी ज़िन्दगी और मन दोनों से निकाल दिया हो तब तो ऐसे समबन्ध का महत्त्व और भी बढ़ जाता है. इसमें कोई अपेक्षा नहीं है सिवाय प्रेम के! और यही उम्मीद जीवित रहने का संबल देती है कि आपके पास एक ऐसा साथी है जो हर पल आपका ख्याल रखता है. यहाँ यह बात प्रकट होती है कि आज दुनिया भले ही इस तरह के संबंधों को कोई नाम देकर मजाक उड़ाये लेकिन उसके आधार में सिर्फ एक ही बात प्रधान है और वह है प्रेम!!!!
और कहानी के अंत में बाजी का उन लोगों(होमेलेस डे केयर सेंटर में आये गरीब लोग) के प्रति जो नजरिया था, वह बदल जाता है और ५० पौंड का जुर्माना लगने पर वह सोचती हैं कि वह अब इस सेंटर पर कभी नहीं जाएँगी.लेकिन अपने मन के लाख मना करने के बावजूद भी जब वह डब्लू एच स्मिथ के दो थैलों में दो कापियां,चार बालपेन, छोटे कैनवस और रंगों की शीशियाँ लेकर पहुंचती हैं तो पाठक के मन में कुछ छिलने जैसा एहसास होता है,उसके मन की करुणा जाग जाती है.  

पाठक रूप में तहे दिल से तेजिंदर जी  को धन्यवाद !
आपका मनीष...
**यदि तेजिंदर जी इसे पढ़ें  और यदि उन्हें यह लगे की मुझसे कोई गलती या कहीं भी सीमा का उलंघन हुआ हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ.