Monday 21 November, 2011

मरे का सम्मान!!!!!

                                                                                                                 


सब लगते यहाँ अपने हैं,पर अपनापन कहाँ है?,
गैर ज़िम्मेदार हूँ मैं, या सिर्फ ताने देता जहाँ है.
क्या इतना मूढ़ हूँ मैं कि यह बात न समझ पाऊँ,
जी में आता है कि चुल्लू भर पानी में डूब मर जाऊं.
तानों के तीर तीक्ष्ण हैं भुजंग के भी दंश से,
एक मौत देता दूसरा छोड़ता घाव असाध्य से.
जो सतत टीसते कि अकर्मण्य तू अब तक नहीं मरा.
क्या कर्म था क्या नहीं किया कोई यह बता दे ज़रा.
धिक् जीवन यह हाय! जहाँ समझौते करने पड़ते हैं,
यहाँ सांस लेते रहने को भी बहाने गढ़ने पड़ते हैं.


क्या कभी किसी चिड़िया सा मैं ऊँचा उड़ पाउँगा?,
मन के पंख फैलाकर क्या हवा में लहराऊंगा?
आँखें भर आती हैं पर आँसू नहीं छलकते हैं,
जो मगज के पृष्ठ भाग में ज्वाला बन धधकते हैं.
यह पीड़ा कष्टदायी है यह भावों का ही घाव है,
मंथन होता है वैसा कि जब धारा में फंसती नाव है.
कैसा कम्पन है यह जो स्नायु-तंत्र को है निचोड़ता,
बेबस हुआ मन मेरा अब तक जो न था कुछ सोचता.


तमाशाइयों की इस भीड़ में अकेला हूँ लाचार हूँ.
उनकी नज़र में हमेशा सा आज भी बेकार हूँ.
शायद इन सब के लिए मैं ही ज़िम्मेदार हूँ,
सतत द्वंद्वों बीच गढ़ा एक विचित्र सा आकार हूँ.
कहने को चौरासी हजार योनि पार कर यहाँ आया हूँ,
पर इस सफ़र में दोस्तों सब खो दिया कुछ न पाया हूँ.
मनुष्य योनि श्रेष्ठ है पर यह कैसा मानव स्वभाव है,
कभी तो यह लगता है इसमें भावना का ही अभाव है.
भावना भी है तो उसकी प्रकृति बड़ी विचित्र है,
हर पल बदल जाता है वही मानव का चरित्र है.

यदि रुग्ण हुई काया मेरी तो मेरा क्या कसूर है,
या कोई दूसरा भी यह न समझने को मजबूर है.
हे ईश! वध करो मेरा,मुझे कष्ट है जब तक यह जान है,
मैं समझ गया इस समाज में मरे हुए का ही सम्मान है...