जब अपनों के परायेपन से मन टूटने लगा,
तो हमने भी गैरों से मन जोड़ा,इसे मनाने को.
क्या कुछ नहीं खोया कि अपनों का प्यार मिले?
पर अब तो सिर्फ इज्ज़त ही बची थी गंवाने को.
काँटों की राह पर सदा चलने वाले हम!!
अब तो
डरते हैं किसी फूल से भी दिल लगाने को.
रूह तपती, धधकती, जलती है ;
फिर भी
मन में तारे मचल रहे हैं टिमटिमाने को.
धुंधली याद है, तस्वीर साफ़ है मगर,
कुछ भी बचा नहीं है मुस्कुराने को.
आस कर ली थी आसमान को पाने की,
अब तो 'धरा' भी नहीं है कुछ बिछाने को.
अब कुछ नहीं चाहिए दो गज ज़मीन के सिवा,
खुद को दफ़न कर भुला पायें हम,
शायद!! इस ज़माने को.??
अब तो कुछ भी बचा नहीं है दिल लगाने को.....
बहुत बढ़िया.
ReplyDeletethanx sameer ji!
ReplyDeleteारे भाई दिल लगाने को ब्लागिन्ग तो है ना/ बहुत अच्छी लगी दिल की कशमकश। धन्यवाद। शुभकामनायें आशीर्वाद।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना, बेहतरीन!
ReplyDeletereality brought to words....:)
ReplyDeleteone of the most beautiful and the most heart felt poem i have ever read.. :)
ReplyDeletethanx dear!
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