Saturday 9 October, 2010

कुछ भी बचा नहीं है दिल लगाने को....

जब अपनों के परायेपन से मन टूटने लगा,
तो हमने भी गैरों से मन जोड़ा,इसे मनाने को.
क्या कुछ नहीं खोया कि अपनों का प्यार मिले?
पर अब तो सिर्फ इज्ज़त ही बची थी गंवाने को.
काँटों की राह पर सदा चलने वाले हम!!
अब तो
डरते हैं किसी फूल से भी दिल लगाने को.
रूह तपती, धधकती, जलती है ;
फिर भी
मन में तारे मचल रहे हैं टिमटिमाने को.
धुंधली याद है, तस्वीर साफ़ है मगर,
कुछ भी बचा नहीं है मुस्कुराने को.
आस कर ली थी आसमान को पाने की,
अब तो 'धरा' भी नहीं है कुछ बिछाने को.
अब कुछ नहीं चाहिए दो गज ज़मीन के सिवा,
खुद को दफ़न कर भुला पायें हम,
शायद!! इस ज़माने को.??
अब तो कुछ भी बचा नहीं है दिल लगाने को.....

7 comments:

  1. ारे भाई दिल लगाने को ब्लागिन्ग तो है ना/ बहुत अच्छी लगी दिल की कशमकश। धन्यवाद। शुभकामनायें आशीर्वाद।

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना, बेहतरीन!

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  3. one of the most beautiful and the most heart felt poem i have ever read.. :)

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